Tuesday, 1 December 2015

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🌱🌱ब्रज की वार्ता 🌱🌱
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🌹 निताई गौर हरिबोल🌹

💐श्री  राधारमणो विजयते 💐

🌿जैसा धन वैसा अन्न वैसा मन'🌿

🍁यह कहावत या वाक्य  अनेकों बार हमने सुना है और हमने अनेक या कुछ लोगों ने इसका साक्षात अनुभव भी किया है ।

🍒अपने घर में हम रोज भोजन करते हैं।  लेकिन जिस दिन घर में सन्त -साधु- वैष्णव सेवा होती हैं।  वैष्णव जन प्रसाद पाने पधारते हैं - प्रसाद पाते हैं और उनके पश्ताप जब हम वही महाप्रसाद भोजन करते हैं तो एक पृथक -एक दिव्य अलोकिक सात्विक सा एहसास होता है वैसी सब्जी या  वैसी खीर प्रयास करने पर भी अन्य सामान्य दिनों में नहीं बनती।

🔔 इसका भावनात्मक एवं प्रयोगात्मक सीधा-सीधा कारण है कि उस दिन प्रातः  से ही हमारा मन सात्विकता से भरा होता है । घर में वैष्णवों के पधारने का आनंद होता है । व्यवहारिक रुप में भी स्नानादि करके शुद्ध शरीर व् मन से ठाकुर जी का अमनिया तैयार होता है ठाकुर को भोग लगता है वैष्णव गण उसे पाते हैं । कुल मिलाकर वातावरण में आनंदपूर्ण सात्विकता होती है और यही सब हमारे मन में भी होती है।

🐚 जब मन में, वातावरण में आनंद होगा तो अन्न आनंदमय  क्यों नहीं होगा । मन और अन्य दोनों ही एक दूसरे पर अपेक्षित हैं । मन में आनंद होगा - सात्विकता होगी तो भी अन्न भी सात्विक होगा और सात्विक अन्य यदि ग्रहण किया जाए तो मन भी सात्विक होगा ।

👳🏻एक संत पधारें तो उनसे इसी बात पर चर्चा चल पड़ी उन्होंने एक रहस्योद्घाटन और किया उन्होंने कहा अन्न और मन तो एक दूसरे पर निर्भर हैं ही लेकिन इसमें एक तीसरा तत्व और भी है वह हिडन है। वह ही धन है । इन्होंने कहा यह पूरा वाक्य है जैसा धन- वैसा अन्न- वैसा मन

💵अर्थात जिस प्रकार के धन से वह अन्न प्राप्त किया गया है और तैयार किया गया है उसका वैसा ही प्रभाव हमारे मन पर पड़ेगा किसी को कष्ट देकर,  धोखा देकर,  चालाकी, से उसको चीट करके, उसका हक मार कर,  यदि धन कमाया तो उस धन में उसकी आह, कसक की वाइब्रेशन अवश्य होगी।  और वह वाइब्रेशन धन से अन्न  में अन्न से मन में अवश्य आएगी और यह सिलसिला कभी टूटेगा नहीं।

👀अतः सर्वप्रथम यह देखना है कि हमारा धन शुद्ध है कि नहीं । यह न्याय से अर्जित है या रिश्वत से । आटे में नमक है या भैंस समेत खोया ?

🍇🍉कभी अपने को श्रीराधारमण जी अथवा अन्य मंदिरों की कच्ची रसोई का प्रसाद पाने का सौभाग्य मिला हो तो उस दुर्लभ  प्रसाद को आप जीवन भर नहीं भूलेंगे ।मंदिर के गोस्वामीयो द्वारा परस्पर  में रहकर दिव्य अग्नि पर पूर्ण सात्विकता से यह अम्निया श्री राधारमण जी के भोग हेतु तैयार होता है। बाद में मंदिर के पिछवाड़े में गोस्वामी गण द्वारा ही वे प्रसाद कुछ विशिष्ट सोभाग्यशाली जनों को बैठाकर पवाया जाता है उसका स्वाद उसका आनंद वर्णतीत है। दिव्य है व्ही धन भी शुद्ध है । स्वेच्छा से ठाकुर को भेंट किया गया है।  वातावरण भी शुद्ध है मन भी शुद्ध हैं।  सर्वोपरि हैं श्री राधारमण जी का प्रसाद है । वही उन के सानिध्य में पाया जा रहा है । फिर क्यों नहीं होगा दिव्य प्रसाद ।

🔎अतः हम सदैव चेष्टाशील रहे की हमारा धन शुद्ध हो । धन शुद्ध होगा तो अन्न शुद्ध होगा। अन्न शुद्ध होगा तो मन वातावरण सब शुद्ध होगा । और होगा सर्वत्र आनंद ही आनंद।

 🌻इस प्रकार हमारी इस कथा का संक्षेप में यही अर्थ है कि भाई

जैसा होगा धन वैसा होगा अन्न और वैसा होगा मन

 🌺जय श्री राधारमण
 🌺जय निताई

लेखकः
दासाभास डा गिरिराज नांगिया श्रीहरिनाम प्रेस वृन्दावन

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