✅ *दो प्रकार के भाव होते हैं* ✅
▶ एक ऐसा भाव होता है जिसको *तदीयता भाव* बोलते हैं अर्थात मैं *तुम्हारा* हूं अर्थात तुम्हारे *शरणागत* हूं
▶ अब तुम मुझे सुख दो । दुख दो। मारो । रक्षा करो । मेरा ध्यान रखो। रखो ना रखो । मारो । बचाओ । जो भी करना है आपने करना है
▶ हे प्रभु मैं तो बस आपके पास आ गया। मैं अब तुम्हारा बन गया । मैं अब संसार का नहीं हूं । यह भाव भी बहुत श्रेष्ठ है । लेकिन इससे और भी श्रेष्ठ भाव है *मदीयता का भाव*
▶ मदीयता भाव मैं । हे प्रभु अब तुम मेरे हो। मैं तुम्हारा ध्यान रखूंगा । तुम्हारे सुख की चिंता करुंगा । तुम्हारी सेवा करूंगा । तुम्हें यथासंभव प्रसन्न रखूंगा ।
▶ इस भाव में अपने बारे में कोई सोच ही नहीं है कि तुम मेरा ध्यान रखना या मुझे दुखी करना या सुखी करना । हित करना । यह सब नहीं है
▶ *तदीयता भाव* में ठीक है प्रभु के प्रति समर्पण तो है लेकिन कहीं ना कहीं अपनी सारी जिम्मेदारियां प्रभु पर थोप देने का भाव है ।
▶ केंद्र अपने ऊपर है और सेकेंडरी है प्रभु की सेवा लेकिन *मदीयता भाव* में प्रभु की सेवा ही केंद्र में है ।
▶ अपने बारे में कोई चिंता नहीं है प्रभु का ही सब प्रकार से सुख विधान करना मदीयता भाव का मूल उद्देश्य है
▶ अब जब ऐसा कोई भाव रख लेता है तो फिर प्रभु ने स्वयं कहा है *अनन्याश्चिंतयंतो मां ये जना* *पर्युपासते* जो अनन्य भाव से मेरा भजन करते हैं मैं उनकी सब प्रकार से योगक्षेम वहन करता हूं
▶ इस प्रकार *मदीयता में तदीयता* तो अपने आप ही आ जाती है लेकिन यदि शुरुआत तदीयता से भी हो तो साधक तदीयता के बाद मदीयता में आ ही जाता है
▶ क्योंकि यह श्रेष्ठ है इसमें जीवो के दास्य स्वरूप का सही दर्शन है और कृष्ण चरण सेवा । कृष्ण सुख प्राप्ति की ही आशा है
🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई ॥ 🐚
🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
▶ एक ऐसा भाव होता है जिसको *तदीयता भाव* बोलते हैं अर्थात मैं *तुम्हारा* हूं अर्थात तुम्हारे *शरणागत* हूं
▶ अब तुम मुझे सुख दो । दुख दो। मारो । रक्षा करो । मेरा ध्यान रखो। रखो ना रखो । मारो । बचाओ । जो भी करना है आपने करना है
▶ हे प्रभु मैं तो बस आपके पास आ गया। मैं अब तुम्हारा बन गया । मैं अब संसार का नहीं हूं । यह भाव भी बहुत श्रेष्ठ है । लेकिन इससे और भी श्रेष्ठ भाव है *मदीयता का भाव*
▶ मदीयता भाव मैं । हे प्रभु अब तुम मेरे हो। मैं तुम्हारा ध्यान रखूंगा । तुम्हारे सुख की चिंता करुंगा । तुम्हारी सेवा करूंगा । तुम्हें यथासंभव प्रसन्न रखूंगा ।
▶ इस भाव में अपने बारे में कोई सोच ही नहीं है कि तुम मेरा ध्यान रखना या मुझे दुखी करना या सुखी करना । हित करना । यह सब नहीं है
▶ *तदीयता भाव* में ठीक है प्रभु के प्रति समर्पण तो है लेकिन कहीं ना कहीं अपनी सारी जिम्मेदारियां प्रभु पर थोप देने का भाव है ।
▶ केंद्र अपने ऊपर है और सेकेंडरी है प्रभु की सेवा लेकिन *मदीयता भाव* में प्रभु की सेवा ही केंद्र में है ।
▶ अपने बारे में कोई चिंता नहीं है प्रभु का ही सब प्रकार से सुख विधान करना मदीयता भाव का मूल उद्देश्य है
▶ अब जब ऐसा कोई भाव रख लेता है तो फिर प्रभु ने स्वयं कहा है *अनन्याश्चिंतयंतो मां ये जना* *पर्युपासते* जो अनन्य भाव से मेरा भजन करते हैं मैं उनकी सब प्रकार से योगक्षेम वहन करता हूं
▶ इस प्रकार *मदीयता में तदीयता* तो अपने आप ही आ जाती है लेकिन यदि शुरुआत तदीयता से भी हो तो साधक तदीयता के बाद मदीयता में आ ही जाता है
▶ क्योंकि यह श्रेष्ठ है इसमें जीवो के दास्य स्वरूप का सही दर्शन है और कृष्ण चरण सेवा । कृष्ण सुख प्राप्ति की ही आशा है
🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई ॥ 🐚
🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
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