*अभिमान या स्वाभिमान*
👲🏻अधिकतर अभिमान और स्वाभिमान की बात होती है । लोक दृष्टि से स्वाभिमान का अर्थ अपने *जाति* के अभिमान । अपने *मानव* होने का अभिमान । अपने स्त्री या *अर्धांगिनी* होने के अभिमान को या अपने *पद* की गरिमा को स्वाभिमान कह दिया जाता है
🤕जैसे कार्यालय में एक चपड़ासी एक ऑफिसर से उसकी *गरिमा* के अनुरूप बात ना करे तो स्वाभिमान को चोट पहुंचती है । इसी स्वाभिमान को थोड़ा बढ़ा दिया जाए उसी का नाम अभिमान है ।
😡👿*कुल मिलाकर स्वाभिमान*
*और* *अभिमान दोनों मौसेरे भाई ही हैं*
👴🏻*वैष्णव वृत्ति* में अभिमान और स्वाभिमान दोनों ही *त्याज्य* हैं अभिमान तो करना ही नहीं है किस बात का अभिमान
👳🏻एक वैष्णव तो कृष्ण का दास है । दास माने एक सेवक और शायद दास भी नहीं दासों के दास का दास है । इतना एक तुच्छ सा सेवक यदि हमने अपने आप को मान लिया है तो अभिमान का तो कोई अवकाश ही नहीं है
🙄रही बात स्वाभिमान की कि हम कृष्ण के दास है यह स्वाभिमान तो कम से कम रहना ही चाहिए तो इस विषय में भी चिंतनीय है कि बड़े-बड़े संतों ने , बड़े-बड़े वैष्णवों ने कभी यह स्वीकार ही नहीं किया कि वह कृष्ण के दास बन पाए पूरी तरह
😎तो हम जैसे *जीव* इस बात का भी स्वाभिमान क्या करें कि हम श्री कृष्ण के दास है । तत्वतः तो हम दास ही हैं ।
😌लेकिन दास वाला अपना फर्ज । अपना दायित्व । अपनी जिम्मेदारियां कहां पूरी कर पा रहे हैं । और नहीं पूरी कर पा रहे हैं तो फिर किस बात का स्वाभिमान
👲🏻अतः एक वैष्णव को सदा ही दीन-हीन होकर रहना है । दैन्य ही वैष्णव का भूषण है । *यह देन्यता दिखाने या* *लिखने के लिए ना हो*
💿यह दैन्यता ❤ *हृदय* ❤में हो । और हर्दय से हम स्वीकार करें कि हम श्रीकृष्ण के एक दीन हीन जन है । ना तो हमसे संसार निर्वाह हुआ और ना ही भजन हो पा रहा है
⚱जाने कितने जन्मों में भजन द्वारा हम श्रीकृष्ण की सेवा प्राप्त कर पाएंगे । हम क्षुद्र से एक छोटे से एक 🕷🐜कीट जैसे ठाकुर के सेवक हैं
🐠यदि यह भाव शुरू भी हो जाए तो अभिमान और स्वाभिमान तो फिर कहीं टिकेंगे ही नहीं । दुम दबाकर भाग जायेंगे । और इनका भाग जाना ही हमारे लिए । एक वैष्णव के लिए बहुत बड़े हित की बात है ।
🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई ॥ 🐚
🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
📢 ट्विटर पर : https://twitter.com/dasabhas_vbn
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