✅ *आत्म नियंत्रित* ✅
▶ एक बार विवेकानंद जी एक ट्रेन में सफर कर रहे थे । सन्यासी वेश था । मुख पर तेज था । हट्टे कट्टे थे । जवान थे । उनके सामने वाली सीट पर *दो पढ़े लिखे युवक* थे ।
▶ और आपस में इंग्लिश में बात कर रहे थे कि ऐसे ही जवान लोगों ने हमारे देश का *सत्यानाश* किया हुआ है भगवे कपड़े पहन लेते हैं । इधर प्रवचन देते हैं । उधर प्रवचन देते हैं । खाते हैं । पीते हैं । मस्त रहते हैं । ना काम करते हैं ना धाम करते हैं ।
▶ इस प्रकार इंग्लिश में काफी देर से वह विवेकानंद जी की *निंदा* कर रहे थे । विवेकानंद जी सामने बैठे थे और बड़े आराम से उन्हें सब कुछ सुनाई पड़ रहा था ।
▶ थोड़ी देर में टिकट चेकर आया । टिकट चेकर से विवेकानंद ने *इंग्लिश* में बात करते हुए उसको अपनी टिकट दिखाइ ।
▶ जब उन् युवकों ने देखा कि यह तो इंग्लिश बोल रहे हैं । इसका मतलब हम जो इंग्लिश में इनके बारे में बात कर रहे थे वह सब उन्होंने सुनी है और समझी है तो उन्हें तो *काटो तो खून* नहीं ।
▶ *चर्चा या जिज्ञासा उसी व्यक्ति से आमने सामने होती है । इसमें कोई हानि नहीं । अपराध नहीं अपराधबोध नहीं । पसीना नहीं । भय नहीं लेकिन *पीठ पीछे संयुक्त रूप* में जो चर्चा होती है वह आलोचना । अपराध । निंदा की श्रेणी में आती है ।
▶ और जब यह पता चले कि हमारी इस निंदा को वह व्यक्ति भी सुन रहा है जिसकी हम निंदा कर रहे हैं तो ऐसे *व्यक्तियों के पसीने*छूट जाते हैं वही हाल हुआ उन दो युवकों का ।
▶ उन दो युवकों ने विवेकानंद जी से पूछा कि हम आपकी बुराई कर रहे थे और आप सब समझ ही रहे थे फिर भी आपके चेहरे पर हमने कोई भी क्रोध के भाव नहीं देखे ना ही आपने हमारी बातों का कोई विरोध किया ना ही आप उग्र हुए ऐसा क्यों ?
▶ विवेकानंद जी ने जवाब दिया कि मैं अपने द्वारा नियंत्रित रहता हूं मैं ऐसा नहीं हूं कि
▶ कोई दो शब्द मेरी प्रशंसा के बोले और मैं उछल जाऊं ऐसे ही कोई दो शब्द मेरी निंदा के बोले तो मैं क्रोधित हो जाऊं
▶ मैं आत्म नियंत्रित हूं जब मेरा मन करेगा तब मैं प्रसन्न हूंगा हस लूंगा और जब मेरा मन होगा तब मैं क्रोधित होउंगा ।
▶ यह बहुत *बड़ी शिक्षा* विवेकानंद जी हम सभी को दे गये । वास्तव में हम आत्म नियंत्रित नहीं है किसी के दो शब्दों से *उछल* जाते हैं और किसी के दो शब्दों से *बिखर* जाते हैं
▶ अतः चिंतन करें और अपने आपको इस विषय में कमजोर ना होने दें । अपने अंदर ऐसी शक्ति उत्पन्न करें ।
समस्त वैष्णव जन को मेरा सादर प्रणाम
🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई ॥ 🐚
🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
▶ एक बार विवेकानंद जी एक ट्रेन में सफर कर रहे थे । सन्यासी वेश था । मुख पर तेज था । हट्टे कट्टे थे । जवान थे । उनके सामने वाली सीट पर *दो पढ़े लिखे युवक* थे ।
▶ और आपस में इंग्लिश में बात कर रहे थे कि ऐसे ही जवान लोगों ने हमारे देश का *सत्यानाश* किया हुआ है भगवे कपड़े पहन लेते हैं । इधर प्रवचन देते हैं । उधर प्रवचन देते हैं । खाते हैं । पीते हैं । मस्त रहते हैं । ना काम करते हैं ना धाम करते हैं ।
▶ इस प्रकार इंग्लिश में काफी देर से वह विवेकानंद जी की *निंदा* कर रहे थे । विवेकानंद जी सामने बैठे थे और बड़े आराम से उन्हें सब कुछ सुनाई पड़ रहा था ।
▶ थोड़ी देर में टिकट चेकर आया । टिकट चेकर से विवेकानंद ने *इंग्लिश* में बात करते हुए उसको अपनी टिकट दिखाइ ।
▶ जब उन् युवकों ने देखा कि यह तो इंग्लिश बोल रहे हैं । इसका मतलब हम जो इंग्लिश में इनके बारे में बात कर रहे थे वह सब उन्होंने सुनी है और समझी है तो उन्हें तो *काटो तो खून* नहीं ।
▶ *चर्चा या जिज्ञासा उसी व्यक्ति से आमने सामने होती है । इसमें कोई हानि नहीं । अपराध नहीं अपराधबोध नहीं । पसीना नहीं । भय नहीं लेकिन *पीठ पीछे संयुक्त रूप* में जो चर्चा होती है वह आलोचना । अपराध । निंदा की श्रेणी में आती है ।
▶ और जब यह पता चले कि हमारी इस निंदा को वह व्यक्ति भी सुन रहा है जिसकी हम निंदा कर रहे हैं तो ऐसे *व्यक्तियों के पसीने*छूट जाते हैं वही हाल हुआ उन दो युवकों का ।
▶ उन दो युवकों ने विवेकानंद जी से पूछा कि हम आपकी बुराई कर रहे थे और आप सब समझ ही रहे थे फिर भी आपके चेहरे पर हमने कोई भी क्रोध के भाव नहीं देखे ना ही आपने हमारी बातों का कोई विरोध किया ना ही आप उग्र हुए ऐसा क्यों ?
▶ विवेकानंद जी ने जवाब दिया कि मैं अपने द्वारा नियंत्रित रहता हूं मैं ऐसा नहीं हूं कि
▶ कोई दो शब्द मेरी प्रशंसा के बोले और मैं उछल जाऊं ऐसे ही कोई दो शब्द मेरी निंदा के बोले तो मैं क्रोधित हो जाऊं
▶ मैं आत्म नियंत्रित हूं जब मेरा मन करेगा तब मैं प्रसन्न हूंगा हस लूंगा और जब मेरा मन होगा तब मैं क्रोधित होउंगा ।
▶ यह बहुत *बड़ी शिक्षा* विवेकानंद जी हम सभी को दे गये । वास्तव में हम आत्म नियंत्रित नहीं है किसी के दो शब्दों से *उछल* जाते हैं और किसी के दो शब्दों से *बिखर* जाते हैं
▶ अतः चिंतन करें और अपने आपको इस विषय में कमजोर ना होने दें । अपने अंदर ऐसी शक्ति उत्पन्न करें ।
समस्त वैष्णव जन को मेरा सादर प्रणाम
🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
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🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
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