Saturday, 8 October 2011

102. सत्व - रज- तम : साधुओं मैं भी

✅   सत्व - रज- तम : साधुओं मैं भी  ✅  

▶ वैसे तो संतों में, साधुओं मैं
▶  सज्जनों में, महापुरुषों मैं, वैष्णवों में
▶ सदैव सत्व गुण की ही प्रधानता  रहती है
▶ दुसरे गुण चुपचाप थोड़े अंश में एक ओर
▶ पड़े रहते हैं, ओर हावी होने का मौक़ा देखते रहते हैं |
▶ मौक़ा मिलते ही जब रजोगुण हावी होता है
▶ तो साधू - वैष्णव में काम - वासना नहीं होती
▶ वे ठाकुर का नया सिंहासन वनवाने मै, नए वस्त्र बनाने मै,
▶ मंदिर की  पुताई - लिपाई में अच्छे प्रसाद अमनियां
▶ की व्यवस्था में एवं अन्य पोसितिवे सेवाओं मै
▶  इस रजो गुण का प्रयोग क्रियाशीलता
▶ में करते हुए इसका सदुपयोग कर लेते हैं |
▶ इसी तरह  जब तमोगुण अवसर ढूढता है तो
▶ वे क्रोध करते हैं - अपने अवगुणों पर 
▶ हिंसा करते हैं - अपनी बुरी आदतों की 
▶ दमन करते हैं - अपनी इन्द्रिओं का
▶ और अहंकार करते हैं - अपने श्री कृष्णदास होने का
▶ गुण तीनों आवश्यक हैं, स्रष्टि का आधार हैं
▶ अंतर होता है इनकी मात्रा का और बुद्धिमानी है - इनके सही प्रयोग करने मैं

🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई  ॥ 🐚



 🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया  
LBW - Lives Born Works at vrindabn

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