✔ *फिर मज़बूरी क्या है जी* ✔
➡ हमारे जीवन में हमें अनेक प्रकार के लोग मिलते हैं । किसी किसी से हमारा स्वभाव मिल जाता है और किसी किसी से हमारा स्वभाव बिल्कुल नहीं मिलता है
➡ जिन स स्वभावं मिल जाता है वह तो ठीक हैं । हमारे जीवन में अनुकूलता प्रदान करते हैं इससे हम आनंदित रहते हैं
➡ लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन से स्वभाव नहीं मिलता है और वह हर समय हमें मानसिक रुप से मतभेद होने के कारण परेशानी सी पैदा करते हैं
➡ विचार न मिलने वाले ऐसे कुछ लोग यदि हमारे रिश्तेदार हैं, हमारी माता है, हमारे पिता है, हमारा पुत्र है, पत्नी है, भाई है, बहन है, मामा है चाचा है, आदि आदि ।
➡ तब तो फिर भी हमारी कुछ मजबूरी है कि हम उन से संबंध बनाए रखें और उनको झेलते रहे क्योंकि उनसे एक ऐसा अकाट्य संबंध है जो चाहने पर भी तोड़ा नहीं जा सकता
➡ तो इस मजबूरी को झेलना ही पड़ता है और एक बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसे लोगों को बेमन से अपने मतलब जितना जीना ही पड़ता है और जीना भी चाहिए इसी को जीवन का संतुलन या सामंजस्य कहते हैं
➡ लेकिन
➡ आजकल सोशल मीडिया पर चाहे टेलीग्राम हो whatsapp हो facebook हो या दूसरे साधन हो हमारे अनेकानेक मित्र बन जाते हैं
➡ जिन से लेना एक न देना दो । ना वह हमारे भाइयों में से हैं ना बहन होते हैं ना मां होते हैं ना बेटी होते हैं लेकिन उनसे कहीं ना कहीं हमारा थोड़ा बहुत स्वभाव मिल जाता है
➡ वह हमें हम उनको अच्छे लगने लगते हैं । प्रारंभ में तो कुछ शिष्टाचार । कुछ व्यवहार निर्वाह । कुछ वाक् पटुता । कुछ व्यवहार कुशलता से एक दूसरे को अच्छे लगने का क्रम चलता रहता है
➡ बाद में कभी-कभी हमें पता चलता है कि हमारा और उसका स्वभाव एक जैसा नहीं है । परस्पर अब सम्मान भी नहीं रहा । प्रेम भी नहीं रहा । एक दूसरे को क्रिटीसाइज करना और एक दूसरे पर विवाद करना आक्षेप करना इत्यादि रह गया
➡ और
➡ इससे हम अनावश्यक तनाव में रहते हैं टेंशन में रहते हैं हमारी चेष्टाएं भी बार बार उधर जाती हैं के देखें क्या हुआ क्या लिखा ऐसे में विवेक का परिचय देते हुए ऐसे लोगों से तुरंत ही दूर हो जाना चाहिए
➡ क्योंकि इनके साथ हम व्यवहार निर्वाह करते रहें ऐसी कोई भी मजबूरी नहीं है एक भावना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है
➡ शास्त्र तो कहता है
राम जाके प्रिय न राम वैदेही
तजिए ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम स्नेही
➡ और इसके उदाहरण में माता का पिता का भाई का त्याग शास्त्र का आदेश है । चलिए हम माता पिता भाई पति पत्नी का त्याग न कर पाएं तो ऐसे अनावश्यक फालतू लोगों का त्याग हमें तुरंत कर देना चाहिए जो हमारे मानसिक संतुलन बुद्धि विवेक को डिस्टर्ब करते हैं और हम उनसे एक अलग तरह की परेशानी से बंध जाते हैं
➡ उस बंधन को तुरंत तोड़ कर हमें अपने मुख्य लक्ष्य भगवत भजन की ओर लगना चाहिए अन्यथा यह डिस्टरबेंस मन मस्तिष्क को परेशान करती है और चिंतन या भजन नहीं बन पाता है
➡ और हम यहाँ आये तो भजन क लिए थे । लेकिन ओटन लगे कपास ।
समस्त वैष्णव जन को मेरा सादर प्रणाम
॥ जय श्री राधे ॥
॥ जय निताई ॥
लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
➡ हमारे जीवन में हमें अनेक प्रकार के लोग मिलते हैं । किसी किसी से हमारा स्वभाव मिल जाता है और किसी किसी से हमारा स्वभाव बिल्कुल नहीं मिलता है
➡ जिन स स्वभावं मिल जाता है वह तो ठीक हैं । हमारे जीवन में अनुकूलता प्रदान करते हैं इससे हम आनंदित रहते हैं
➡ लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन से स्वभाव नहीं मिलता है और वह हर समय हमें मानसिक रुप से मतभेद होने के कारण परेशानी सी पैदा करते हैं
➡ विचार न मिलने वाले ऐसे कुछ लोग यदि हमारे रिश्तेदार हैं, हमारी माता है, हमारे पिता है, हमारा पुत्र है, पत्नी है, भाई है, बहन है, मामा है चाचा है, आदि आदि ।
➡ तब तो फिर भी हमारी कुछ मजबूरी है कि हम उन से संबंध बनाए रखें और उनको झेलते रहे क्योंकि उनसे एक ऐसा अकाट्य संबंध है जो चाहने पर भी तोड़ा नहीं जा सकता
➡ तो इस मजबूरी को झेलना ही पड़ता है और एक बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसे लोगों को बेमन से अपने मतलब जितना जीना ही पड़ता है और जीना भी चाहिए इसी को जीवन का संतुलन या सामंजस्य कहते हैं
➡ लेकिन
➡ आजकल सोशल मीडिया पर चाहे टेलीग्राम हो whatsapp हो facebook हो या दूसरे साधन हो हमारे अनेकानेक मित्र बन जाते हैं
➡ जिन से लेना एक न देना दो । ना वह हमारे भाइयों में से हैं ना बहन होते हैं ना मां होते हैं ना बेटी होते हैं लेकिन उनसे कहीं ना कहीं हमारा थोड़ा बहुत स्वभाव मिल जाता है
➡ वह हमें हम उनको अच्छे लगने लगते हैं । प्रारंभ में तो कुछ शिष्टाचार । कुछ व्यवहार निर्वाह । कुछ वाक् पटुता । कुछ व्यवहार कुशलता से एक दूसरे को अच्छे लगने का क्रम चलता रहता है
➡ बाद में कभी-कभी हमें पता चलता है कि हमारा और उसका स्वभाव एक जैसा नहीं है । परस्पर अब सम्मान भी नहीं रहा । प्रेम भी नहीं रहा । एक दूसरे को क्रिटीसाइज करना और एक दूसरे पर विवाद करना आक्षेप करना इत्यादि रह गया
➡ और
➡ इससे हम अनावश्यक तनाव में रहते हैं टेंशन में रहते हैं हमारी चेष्टाएं भी बार बार उधर जाती हैं के देखें क्या हुआ क्या लिखा ऐसे में विवेक का परिचय देते हुए ऐसे लोगों से तुरंत ही दूर हो जाना चाहिए
➡ क्योंकि इनके साथ हम व्यवहार निर्वाह करते रहें ऐसी कोई भी मजबूरी नहीं है एक भावना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है
➡ शास्त्र तो कहता है
राम जाके प्रिय न राम वैदेही
तजिए ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम स्नेही
➡ और इसके उदाहरण में माता का पिता का भाई का त्याग शास्त्र का आदेश है । चलिए हम माता पिता भाई पति पत्नी का त्याग न कर पाएं तो ऐसे अनावश्यक फालतू लोगों का त्याग हमें तुरंत कर देना चाहिए जो हमारे मानसिक संतुलन बुद्धि विवेक को डिस्टर्ब करते हैं और हम उनसे एक अलग तरह की परेशानी से बंध जाते हैं
➡ उस बंधन को तुरंत तोड़ कर हमें अपने मुख्य लक्ष्य भगवत भजन की ओर लगना चाहिए अन्यथा यह डिस्टरबेंस मन मस्तिष्क को परेशान करती है और चिंतन या भजन नहीं बन पाता है
➡ और हम यहाँ आये तो भजन क लिए थे । लेकिन ओटन लगे कपास ।
समस्त वैष्णव जन को मेरा सादर प्रणाम
॥ जय श्री राधे ॥
॥ जय निताई ॥
लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
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