✔ *शुद्ध को अशुद्ध क्यों करते हो* ✔
यदि आप जो क्रिया कर रहे हो
करने से पहले यह सोच कर करते हो
कि इससे मेरे प्रभु प्रसन्न होंगे। मैं प्रभु की प्रसन्नअपने यश, मनोरंजन, प्रतिष्ठा, धन आदि के लिए नहीं कर रहा हूं तो निश्चित है कि आप भक्ति कर रहे हैं। भक्ति यानी भगवद सुख के लिए किया जाने वाला कार्य।
करने से पहले यह सोच कर करते हो
कि इससे मेरे प्रभु प्रसन्न होंगे। मैं प्रभु की प्रसन्नअपने यश, मनोरंजन, प्रतिष्ठा, धन आदि के लिए नहीं कर रहा हूं तो निश्चित है कि आप भक्ति कर रहे हैं। भक्ति यानी भगवद सुख के लिए किया जाने वाला कार्य।
और यदि यह सोचकर कर रहे हैं तो उसे 'श्री राधारमणाय समर्पणम' लिखने की आवश्यकता नही है। वह तो पहले से ही श्रीराधारमण के सुख की मानसिकता से किया जा रहा है।
✴ यदि फिर भी आप लिखते है तो या अज्ञान है, या फिर मन में यश, प्रतिष्ठा की कामना से प्रारम्भ किया गया था। अब पूर्ण होने पर उसका फल आपने राधारमण जु को समर्पित कर दिया। फल सदैव कर्म का होता है। भक्ति का फल भक्ति है । अतः ये क्रिया कर्म हो गयी। भक्ति नही।
▶ फिर भो ऐसी भक्ति को यदि नाम दिया भी जाए तो 'कर्मार्पण भक्ति' है। मुख्य कर्मार्पण है।भक्ति इसलिए की मात्र श्री राधारमण की स्मृति हो रही है।
ध्यान दीजिए- कर्मार्पण में कर्म करने का अहम और उसे समर्पण करने का अहम भी सूक्ष्मरूप में छिपा है।
▶अंतः चिन्तन कीजिये...
॥ जय श्री राधे ॥
॥ जय निताई ॥
॥ जय निताई ॥
लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
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