मेरे एक मित्र जब
फ़ोन मिलाते थे तो मैं....... बोल रहा हूँ
परम दुष्ट, पापी - तापी अधम, दुराचारी,व्यभिचारी, कपटी
आपकी कृपा का प्रार्थी | आपके चरणों मैं प्रणाम |
मैंने उनसे कहा ऐसा न कहें
आप हम एक ही पथ के पथिक हैं | नहीं नहीं मैं .........हूँ
फिर मैंने उनसे कहा आप यह अभ्यास छोड़े |
दिन मैं आप जितनी बार फ़ोन करते
हैं उतनी बार आप इन दूषित शब्दों का उच्चारण करते हैं |
अधिक अच्छा हो इतनी बार आप भगवान्
का नाम लेंगे तो कल्याण होगा
दैन्य दिखाने के लिए नहीं धारण करने हेतु है
दैन्य दिखाकर - हम कितनी दैन्यता से पेश आते हैं -
इस बात का अहंकार भी धीरे - धीरे घर कर जाता हैं
शब्द का अपना प्रभाव है अत:
प्रयास करके तामसिक शब्दों का प्रयोग नहीं करना
चाहिए | गुरुदेव का आशीष है | करुना है |
आदि सात्विक एवं वैष्णव शब्दों का प्रयोग करने से चित्त
शुद्ध होता हैं | वातावरण शुद्ध रहता हैं |
यह विशेषता मैंने कवि कर्णपूर विरचित
श्री चैतन्य चंद्रोदय नाटक में नोट की |
कवि कर्णपूर महोदय ने पापी, तापी,दुराचारी, पीड़ा, दुष्ट, मृत्यु,
एवं विरह परक नेगेटिव शब्दों का प्रयोग न के बरावर किया है |
यही कारण है की प्रभु की सन्यास लीला हो या जगाई मधाई उद्धार -
कभी भी मन मैं खिन्नता का भाव नहीं आता है |
सदैव आनंद ही आनंद का साम्राज्य विराजमान रहता है
JAI SHRI राधे
DASABHAS Dr GIRIRAJ nangia
L B W at Vrindaban
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