Tuesday, 1 November 2011

130. में बोल रहा हूँ - पापी.........




मेरे एक मित्र जब 
फ़ोन मिलाते थे तो मैं....... बोल रहा हूँ 
परम दुष्ट, पापी - तापी अधम, दुराचारी,व्यभिचारी, कपटी 
आपकी कृपा का प्रार्थी | आपके चरणों मैं प्रणाम |

मैंने  उनसे कहा ऐसा न कहें 
आप हम एक ही पथ के  पथिक हैं | नहीं नहीं मैं .........हूँ 
फिर मैंने उनसे कहा आप यह अभ्यास छोड़े | 
दिन मैं आप जितनी बार फ़ोन करते
हैं उतनी बार आप इन दूषित शब्दों का उच्चारण करते हैं | 
अधिक अच्छा हो इतनी बार आप भगवान्
का  नाम लेंगे तो कल्याण होगा
दैन्य दिखाने के लिए नहीं धारण करने हेतु है 
दैन्य दिखाकर - हम कितनी दैन्यता से पेश आते हैं - 
इस बात का अहंकार भी  धीरे - धीरे घर कर जाता हैं 

शब्द का अपना प्रभाव है अत:
प्रयास करके तामसिक शब्दों का प्रयोग नहीं करना 
चाहिए | गुरुदेव का आशीष है | करुना है |  
आदि सात्विक एवं वैष्णव शब्दों का प्रयोग करने से चित्त 
शुद्ध होता हैं | वातावरण शुद्ध रहता हैं | 

यह विशेषता मैंने कवि कर्णपूर विरचित 
श्री चैतन्य चंद्रोदय नाटक में नोट की | 
कवि कर्णपूर महोदय ने पापी, तापी,दुराचारी, पीड़ा, दुष्ट, मृत्यु, 
एवं विरह परक नेगेटिव शब्दों  का प्रयोग न के बरावर किया है | 
यही कारण है की प्रभु की सन्यास लीला हो या जगाई मधाई उद्धार - 
कभी भी मन मैं खिन्नता  का भाव नहीं आता है |
सदैव आनंद ही आनंद का साम्राज्य विराजमान रहता है    

JAI SHRI राधे

DASABHAS Dr GIRIRAJ nangia
L B W at Vrindaban

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