Saturday, 18 November 2017

Viray Sahayak hi he


विरह सहायक ही है

हम लोग प्रायः संयोग या मिलन को ही श्रेष्ठ मानते हैं और मिलन में ही आनंदित होते हैं

यदि थोड़ा सा भी सूक्ष्मता से देखेंगे तो मिलन में आनंद तो है ही लेकिन लगातार एक साथ रहते हुए या मिलन की स्थिति में रहते हुए धीरे-धीरे एक उकताव सा आता है

उस उकताव को कम करने के लिए  विरह बहुत अच्छा कार्य करता है । जब कोई अपना प्रिय सदस्य सदा साथ रहे तो उसके प्रति स्नेह और आसक्ति में धीरे-धीरे कमी तो होती है, अपितु उसके दोष भी दिखने लगते हैं ।

वही अपना प्रिय यदि एक माह के लिए बाहर चला जाए और फिर एक माह बाद वह आए तो उससे मिलन की जो स्थिति और आनंद होता है वह कई गुना बढ़ जाता है ।

इसलिए आनंद वृद्धि के लिए विरह बहुत ही आवश्यक है । विरह के बाद या वियोग के बाद जो संयोग होता है उसमें आनंद अतिवृद्धि को प्राप्त होता है ।

और विरह के कारण दर्शन न होते हुए अपने प्रिय से सदा ही वह मिलने की ललक लगी रहती है उस ललक से प्रेम वृद्धि होती है, आनंद वृद्धि होती है ।

इसीलिए ही ठाकुर जी की लीलाओं में भी संयोग और वियोग दोनों ही होते हैं । अनेक बार तो ऐसी स्थिति हो जाती है कि संयोग में भी साथ साथ होते हुए भी ऐसा लगता है कि प्रियतम गए ।

शास्त्र कहता है कि जब कोई हमारे पास होता है तब हमारा यही चिंतन होता है कि अब यह कल चला जाएगा , अब यह कल चला जाएगा , अब यह कल चला जाएगा ।

और जब कोई दूर होता है तब सदा ही यह चिंतन होता है कि अब बस एक दिन में वह आने वाला है  । एक दिन में आने वाला है ।

आने के बारे में सोचने में आनंद अधिक होता है और जाने के बारे में सोचने में आनंद का अभाव होता है । अतः विरह बहुत ही महत्वपूर्ण है और आनंद का एक आवश्यक स्रोत है ।

समस्त वैष्णववृन्द को दासाभास का प्रणाम

🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई  ॥ 🐚

🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn

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