Monday 23 January 2017

Vijay Main Kripa Ke Darshan

Vijay Main Kripa Ke Darshan

  *विजय में कृपा के दर्शन*   

दासाभास के पिता जी के एक मित्र थे, उन्होंने किसी सेठ से कुछ रुपए उधार लिए थे । उस समय में उधार के रूप में ₹500 भी पर्याप्त होते थे ।

सेठ जी भी वेश्नव वृत्ति के थे और पिताजी के मित्र भी वैष्णव थे । समय आने पर पिताजी के मित्र ने उन सेठ जी को जो भी उधार रुपए लिए थे वह वापस कर दिए । उसकी ब्याज आदि न लेनी थी न देनी थी ।

विश्वास का जमाना था । कोई लिखा पढ़ी नहीं थी समय चलता रहा । साल दो साल बाद कहीं उन सेठ जी को ऐसा लगा कि इस वैष्णव ने अभी तक मेरी राशि नहीं लौटाई है ।

उन्होंने दासभास के पिताजी के मित्र से कहा भइया काफी समय हो गया आपने ज़िक्र भी नहीं किया आप कृपा करके मेरी वह राशि वापस कर दें ।

वैष्णव तो भौचक्का रह गया और उसने कहा सेठ जी मैंने तो आपको राशी फला फला दिन 2 साल पहले ही वापस कर दी थी । आप वहां घर में बैठे थ, मैं गया था और मैंने आपको राशि देनी थी ।

सेठ जी को बिल्कुल विस्मृति हो गई और उन्होंने डराया-धमकाया । दासाभास के पिताजी से भी कहा । अंततः उस पर मुकदमा ठोक दिया ।

कोर्ट में डेट लगने लगी । सेठ जी को विस्मृति और इस वैष्णव को अफसोस । बेईमान दोनों में से कोई न था । एक बस घटना चक्र होना था।

अंतिम निर्णय होना था आज के दिन ।  एक परम सिद्ध संत स्वामीजी हुआ करते थे । स्वामी ललित लडैती जी, वह वैष्णव उनके पास गया और रोया के ऐसे ऐसे मैंने वह राशि वापस कर दी थी ।

आज फैसला होना है यदि मुझे दोबारा पैसे देने पड़ गए तो मेरे पास तो आज इतनी राशि भी नहीं है ।

स्वामी जी ने उनकी आंखों में आंखें डालकर पक्का कराया के क्या यह बात सही है । स्वामी जी से बोला मैं अपने बच्चों की कसम, अपनी कसम एक दम सही है ।

स्वामी जी ने बोला चलो जाओ आज की डेट देखो । देखते हैं क्या होता है । कोर्ट में पेश हुए । जज ने अंतिम बार पूछा कि आप अंतिम बार बताइए आपने पैसे दिए तो कब दिए, कहां दिए, इसने साफ-साफ वही बात बताई । इतना समय था । में इन के घर गया, यह कुर्सी पर बैठे हुए थे फलाना ढिकाना सारा विवरण देकर मैंने इनको राशि वापस थी ।

पता नहीं क्या हुआ । सेठ जी की विस्मृति स्मृति में बदल गई और सेठ जी की तो आंखें चौड़ गई और बीच में ही बोल उठे । हां हां हां हां । जज साहब । हां । इसने मुझे पैसे दिए । मेरी गलती है मैं भूल गया । अभी इस के याद दिलाने पर मुझे याद आ गया । मैं माफी चाहता हूं । मेरा इससे कोई लेना-देना नहीं है । इस््ने पैसे दे दिए थे ।

केस खारिज हो गया। सेठ जी ने खेद व्यक्त किया । दोनों अपने घर आ गए । यह सब एक संत की कृपा से हुआ ।

लेकिन वह वैष्णव स्वामी जी से कहने लगे के इस सेठ को अब मैं मज़ा चखाऊंगा । इसने मेरी बदनामी की । मेरे को परेशान किया । मैं इस पर मानहानि का दावा करूंगा ।

स्वामी जी ने कहा । बेटा, ठाकुर जी की कृपा से उसकी स्मृति लौट आई तेरा काम  बन गया । अब यह इस प्रकार का अहंकार या अभिमान करना नितांत अनुचित है ।

और सेठ जी वैष्णव है । बेईमान नहीं है । उसकी विस्मृति के कारण यह सब हो रहा था । वह यदि स्मृति आने पर भी नहीं मानता तो तुम क्या कर लेते । उसने तुम से ब्याज भी नहीं ली ।

अतः ठाकुर जी की कृपा का अनुभव करो और भजन में लगो । यह मान अपमान वैष्णव के लिए शोभा नहीं देता ।

इस कथा से यह एक हमें उपदेश मिलता है कि हमारे जीवन में भी इस प्रकार की घटनाएं होती हैं । कभी ऐसा हो तो ठाकुर की कृपा का ही अनुभव करना चाहिए ।

हमें ईगो-या सामने वाले को बार बार नीचे दिखाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए ।

🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई   🐚

 
🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn

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