परिवार नहीं भोगेगा ?
वाल्मीकि एक व्याध या बहेलिया थे. वृक्षों पर बैठने वाले पक्षियों का शिकार करना-
उसे पकाकर खाना, बेचना यह उनका स्वाभाविक कर्म था. इसी से वे परिवार का पालन पोषण करते थे.
एक दिन वहां से गुजरते समय नारद ने देखा तो पूछा कि तुम जो यह काम करते हो-यह जीव हिंसी है और यह पाप है.
यद्यपि उनकी समझ में बात कहाँ आनी थी लेकिन भगवान के 'मन' नारद जब किसी को समझाना चाहें,
और समझ न आये-ऐसा हो नहीं सकता. अतः क्षण भर में यह समझ आ गया कि यह पाप है.
वाल्मीकि ने कहा कि यह पाप मैं केवल अपने पेट के लिए नहीं करता हूँ. मेरे माता-पिता, पत्नि पुत्र
आदि हैं-वे सभी थोड़ा थोड़ा फल भोगेंगे. नारद ने कहा-जरा तुम पूछलो-क्या वे तैयार हैं.
नारद ने जब पूछा तो सभी बोले-हम क्यों भोगेंगे. तुम पाप करते हो तुम भोगोगे.
वाल्मीकि की आँखें खुल गयीं. प्रभु कृपा करें हमारी भी खुल जांये. भले ही परिवार-पालन के लिए सही,
जो भी झूंठ फरेब, छल, कपट, मक्कारी, अन्याय हम करते हैं, उसका फल हमें ही भोगना है-दूसरा नहीं भोगेगा.
यह निश्चित है. अतः आज से ही सावधान होने की आवश्यकता है.
तब दूसरे के लिए पाप कमाने में तो समझदारी नहीं है.
वाल्मीकि के समझ आने पर पाप से मुक्ति का उपाय पूछने पर नारद ने कहा-'राम' 'राम' जपो.
वाल्मीकि ने कहा-मैंने तो जीवन भर 'मरा' 'मरा' सुना है और मारा ही है. नारद बोले-'मरा' 'मरा' ही जपो.
इनका नाम कुछ और था. इन्होने अन्न, जल त्याग कर लगातार हजारों वर्ष तक एक आसन पर
इतना जप किया कि इनके शरीर के इर्द गिर्द मिट्टी की एक परत जम गयी और उस पर दीमक चींटियाँ लग गयीं.
उस एक ढ़ेर को 'वाल्मीकि' कहते हैं. इसी से इनका नाम वाल्मीकि हुआ.
इन्होंने संस्कृत में रामायण की रचना की.
पुनः दूसरे जन्म में तुलसी बनकर रामचरित मानस की हिंदी में रचना की, जो जग पूज्य है.
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