अभिस्नेह
महात्मा में अभिस्नेह नहीं होता
महात्मा तो स्नेह की मूर्ती हैं . स्नेह तो उनके हृदय में है.
उनके रोम रोम में है.
जैसे आग के पास जाओ तो आंच मिलेगी और तुम्हारी ठण्ड दूर हो जाएगी ,
यह आग का स्वभाव है.
इसी प्रकार महात्मा के पास जाओ
तो स्नेह तो उसकी आँखों में से झरता है उसकी जीभ में से झरता है .
उसके रोम रोम से स्नेह की तन्मात्रा निकलती है.
जो शुद्ध ह्रदय से जाएगा वह उसमे डूब जाएगा .
अगर वहां स्नेह नहीं मिलता है तो समझो की
तुम्हारे मन में कोई गाँठ पढ़ गयी है. कोई धारना, कोई पूर्वाग्रह
आकरके ऐसा बैठ गया है की जिससे तुमको वो स्नेह प्राप्त नहीं हो रहा है.
यदि गर्मी नहीं मिल रही हो तो हो सकता है की वह आग हो ही नहीं .
ऐसे ही यदि स्नेह नहीं है तो पहला कारन तुम्हारे मन की गाँठ .
दूसरा कारन हो सकता है की वो महात्मा ही ना हो . केवल महात्मा जैसा हो
परन्तु एक बात अवश्य है, महात्मा में "अभिस्नेह" नहीं होता.
जेसे संसारी लोग अपने पुत्र में अटकते है ,
दुसरे के पुत्र में नहीं.
अपने रिश्तेदार- नातेदार में अटकते है दुसरे में नहीं
यही "अभिस्नेह" है .
जो महात्मा है वे एक में नहीं अटकते, सब में सामान रहते हैं
साभार - आनंद बोध
JAI SHRI RADHE
DASABHAS Dr GIRIRAJ nangia
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