Thursday, 15 December 2016

दैन्य । एक मूल जड़

दैन्य । एक मूल जड़


​​​✔  *दैन्य । एक मूल जड़​​​​*    ✔ 

▶ एक वैष्णव में दैन्य होना परम आवश्यक है । दैन्य होने में एक विचार चाहिए । वह विचार है कि मैं श्रीकृष्ण का दास हूं ।
किंतु मैं अपने मुख्य कार्य को छोड़कर माया रुपी इस संसार का दासत्व कर रहा हूं । मैं कितना मुर्ख हूं । मैं कितना अधम हूं ।

▶ मुझे जिस लिए भेजा गया वह कार्य में नहीं कर रहा हूं । मैं कितना अवश हूं कि इंद्रियों ने मुझे दबा रखा है ।
मैं अपने जीवन का लक्ष्य नहीं प्राप्त कर पा रहा हूं । इस प्रकार की दयनीय रुप की भावना आने से व्यक्ति में देन्य आता है ।
▶ अर्थात अहम का उल्टा । आजकल हम लोग अहम में रहते हैं ।

▶ मैं इतनी माला करता हूं
मैं इतना सुंदर हूं
मेरे पास यह मकान दुकान गाड़ी बंगला है
मेरा इतना सम्मान है
मैं इतने पैसे कमाता हूं
मैं फलानि लोकेशन में रहता हूं

▶ यह सब जो कूड़ा करकट है इसके अहम में हम जीते हैं । जबकि यह गाड़ी बंगला धन संपत्ति सब कूड़ा है ।
यह जिस दिन समझ में आ जाएगा कि हमने जीवन में अपने मुख्य कार्य को छोड़कर बेकार का कूड़ा एकत्र कर लिया है ।
हम जैसा मूर्ख, हम जैसा अज्ञानी, हम जैसा पागल कोई नहीं है । उस दिन दैन्य हृदय में दैन्य आ जाएगा ।
दैन्य आने से भजन में प्रवृत्ति होगी । भक्ति का मुख्य लक्षण ही है दैन्य ।  जिसमें जितना अधिक वास्तविक दैन्य । उतना अधिक भक्त ।

▶ दैन्य से एक सबसे बड़ा कार्य यह हो जाएगा कि हम अपराधों से भी बच जाएंगे ।

▶ वैष्णव अपराध
▶ नाम अपराध
▶ सेवा अपराध
▶ सामान्य अपराध

▶ आदि जो भी अपराध हैं । यह सब अहम की सन्तान हैं । जब अहम हट जाएगा तो अपराध भी स्वत ही हट जाएंगे ।
दैन्य होने से प्रभु के चरणो में शरणागति भी सच्ची हो जाएगी । इसलिए दैन्य के लिए हम प्रयास करें ।
इसमें कुछ विशेष करना नही होता । जीवन बिलकुल ऐसे ही चलेगा जेसे चल रहा है । गाड़ी भी । बंगला भी इनके प्रति कूड़े की दृष्टि ।

▶ यह एक ब्रेन वाशिंग सिस्टम है । एक-दो दिन में नहीं होगा । इसके लिए दृढ़ करके चिंतन करना होगा कि

▶ हम कितने अधम हैं
हम कितने दीन हैं
हम अपने मार्ग से कितने हटे हुए हैं

▶ ऐसा विचार दृढ़ हो जाने पर कोई हमारा अपमान भी करेगा तो हमें लगेगा कि ठीक ही कह रहा है, और दैन्यता का जो भाव है वह दृढ़ होता जाएगा
नौकर या दास का क्या मान सम्मान और क्या अपमान । उसे तो सबकी सुननी ही है । हम बड़े गर्व से कह तो देते हैं कि हम दास के दास के दास के दास हैं ।
लेकिन यदि किसी ने तू भी कहा तो कहते हैं कि इसमें देखिए बोलने की भी तमीज नहीं है । अरे जब हम दास हैं दास के दास के दास हैं तो तू क्या वह कुछ भी कहे, वह पागल भी कहे तो भी हमें स्वीकार ही करना चाहिए ।

▶ इसलिए प्रयास करके दैन्य धारण करें और अहम का त्याग । केवल ब्रेन वाश कर के दिमाग म बेठना है ।


🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚

🐚 ॥ जय निताई  ॥ 🐚


🖊  लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया 
LBW - Lives Born Works at vrindabn

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