✔ *साधू द्वारा कंजूसी का त्याग* ✔
▶ 64 अंग भक्ति में वैष्णवजन के लिए एक निर्देश है *व्यवहार में कारपण्य त्याग* कारपण्य माने कंजूसी ।
▶ एक साधू या वैष्णव्ं कैसे कंजूसी करता है इसको उदाहरण से समझते हैं । मेरा बहुत वैष्णवों से संतो से संपर्क रहा है
▶ हमारी प्रेस में संत आएंगे । एक ग्रंथ छपाने को कहेंगे वह ग्रंथ फ्री में वितरण होना है । हज़ारों ग्रंथ फ्री में वितरण करेंगे । यह उनकी उदारता का प्रतीक है ।
▶ लेकिन हम जब उनकोे खर्चा बताएंगे तो जो सहज संत होते हैं , वह तो जो हमने मांगा हमें प्रसन्नता से दे देंगे ।
▶ जो कंजूस संत होते हैं हमने यदि एक लाख रुपया मांगा तो वह 70 हजार से शुरू होंगे । फिर कहेंगे नहीं लाला कम करो । फिर दूसरी प्रेस में जाएंगे । फिर तीसरी प्रेस में जाएंगे ।
▶ फिर हमें फोन करेंगे । फिर हम कहेंगे ,महाराज आप ₹5000 कम देना । इससे ज्यादा कम नहीं होगा । लागत आ रही है ।
▶ बहुत समझाने बुझाने पर भी वह अपनी साधुता का वास्ता देकर, हमें जो राशि देनी चाहिए वह नहीं देंगे ।
▶ हमारे पेट पर लात मारेंगे, भले ही वह ग्रंथ फ्री में बाटें । लेकिन इसे कंजूसी कहते हैं । एक तरफ तो आप फ्री में हज़ारों रु का ग्रंथ बांट रहे हैं
▶ और एक तरफ एक व्यापारी जो ग्रंथ छाप रहा है उसको जो उचित मुनाफा मिलना चाहिए, साधुता के नाम पर लागत से भी कम राशि के लिए घिस घिस कर रहे हैं ।
▶ तो वह प्रेस वाला साधुता के दबाव में आ जाय लेकिन अंदर ही अंदर उस को जो पीड़ा होती है उस से उस साधु के भजन में बाधा आती ही है ।
▶ ऐसे ही अन्य जूते कंबल छाता वस्त्र बाटने वाले संत यह सामग्री तो फ्री में बांटेंगे लेकिन व्यापारी का खून चूस जाएंगे ।
▶ साधुता की बार-बार दुहाई देंगे । और व्यापारी भी चाहते ना चाहते लागत या लागत से भी कम पर साधु को सामिग्री दे देगा ।
▶ एक व्यापारी को कष्ट पहुंचाना, उसे समुचित राशि ना देना यही है व्यवहार में कारपन्य । अरे आपने बांटना ही है सौ जूते की जगह 80 जूते बांट लीजिए ।
▶ उस व्यापारी को उसका हक़ तो दीजिए । वह भी व्यापार करके अपने परिवार का पालन पोषण करेगा ।
▶ यदि उसने लागत से कम राशि पर साधू को सामान दिया तो वह क्या दुआ देगा एक साधू को
▶ व्यवहार में कार्पन्य त्याग का यही भाव है जो मुझे आज समझ आया । मुझे समझ नहीं आता था कि कंजूसी त्याग का क्या अर्थ है ।
▶ हम सांसारिक जन को भी इस बात का ध्यान रखना ही चाहिए अन्यथा वृत्ति यहीं लगी रहती है कि कैसे इसे दबाया जाय ।
🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
▶ 64 अंग भक्ति में वैष्णवजन के लिए एक निर्देश है *व्यवहार में कारपण्य त्याग* कारपण्य माने कंजूसी ।
▶ एक साधू या वैष्णव्ं कैसे कंजूसी करता है इसको उदाहरण से समझते हैं । मेरा बहुत वैष्णवों से संतो से संपर्क रहा है
▶ हमारी प्रेस में संत आएंगे । एक ग्रंथ छपाने को कहेंगे वह ग्रंथ फ्री में वितरण होना है । हज़ारों ग्रंथ फ्री में वितरण करेंगे । यह उनकी उदारता का प्रतीक है ।
▶ लेकिन हम जब उनकोे खर्चा बताएंगे तो जो सहज संत होते हैं , वह तो जो हमने मांगा हमें प्रसन्नता से दे देंगे ।
▶ जो कंजूस संत होते हैं हमने यदि एक लाख रुपया मांगा तो वह 70 हजार से शुरू होंगे । फिर कहेंगे नहीं लाला कम करो । फिर दूसरी प्रेस में जाएंगे । फिर तीसरी प्रेस में जाएंगे ।
▶ फिर हमें फोन करेंगे । फिर हम कहेंगे ,महाराज आप ₹5000 कम देना । इससे ज्यादा कम नहीं होगा । लागत आ रही है ।
▶ बहुत समझाने बुझाने पर भी वह अपनी साधुता का वास्ता देकर, हमें जो राशि देनी चाहिए वह नहीं देंगे ।
▶ हमारे पेट पर लात मारेंगे, भले ही वह ग्रंथ फ्री में बाटें । लेकिन इसे कंजूसी कहते हैं । एक तरफ तो आप फ्री में हज़ारों रु का ग्रंथ बांट रहे हैं
▶ और एक तरफ एक व्यापारी जो ग्रंथ छाप रहा है उसको जो उचित मुनाफा मिलना चाहिए, साधुता के नाम पर लागत से भी कम राशि के लिए घिस घिस कर रहे हैं ।
▶ तो वह प्रेस वाला साधुता के दबाव में आ जाय लेकिन अंदर ही अंदर उस को जो पीड़ा होती है उस से उस साधु के भजन में बाधा आती ही है ।
▶ ऐसे ही अन्य जूते कंबल छाता वस्त्र बाटने वाले संत यह सामग्री तो फ्री में बांटेंगे लेकिन व्यापारी का खून चूस जाएंगे ।
▶ साधुता की बार-बार दुहाई देंगे । और व्यापारी भी चाहते ना चाहते लागत या लागत से भी कम पर साधु को सामिग्री दे देगा ।
▶ एक व्यापारी को कष्ट पहुंचाना, उसे समुचित राशि ना देना यही है व्यवहार में कारपन्य । अरे आपने बांटना ही है सौ जूते की जगह 80 जूते बांट लीजिए ।
▶ उस व्यापारी को उसका हक़ तो दीजिए । वह भी व्यापार करके अपने परिवार का पालन पोषण करेगा ।
▶ यदि उसने लागत से कम राशि पर साधू को सामान दिया तो वह क्या दुआ देगा एक साधू को
▶ व्यवहार में कार्पन्य त्याग का यही भाव है जो मुझे आज समझ आया । मुझे समझ नहीं आता था कि कंजूसी त्याग का क्या अर्थ है ।
▶ हम सांसारिक जन को भी इस बात का ध्यान रखना ही चाहिए अन्यथा वृत्ति यहीं लगी रहती है कि कैसे इसे दबाया जाय ।
🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
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