✔ *गुरु परंपरा आनुगत्य* ✔
➡ वैष्णव उपासना, विशेषकर गौड़ीय वैष्णव उपासना में आनुगत्य का बहुत अधिक महत्व है । बिना किसी परंपरा के, बिना किसी परंपरा के अंतर्गत संत स्वरूप किसी को गुरुदेव को धारण किए बिना आनुगत्य प्राप्त नहीं होता है ।
➡ और आनुगत्य प्राप्त ना होने पर भजन का मार्ग प्रशस्त नहीं होता है ।
➡ विभिन्न प्रकार की उपासनाएँ हैं । विभिन्न संप्रदाय हैं, अनेक उपास्य हैं, साधक को उसमें से एक परंपरा एक उपासना, एक साधन को चुनना पड़ता है ।
➡ ठीक वैसे, जैसे एक विद्यार्थी को यह चुनना पड़ता है कि वह कॉमर्स में इंटर करेगा, साइंस में करेगा, आर्ट्स में करेगा, मैनेजमेंट में करेगा या किसी अन्य में करेगा ।
➡ जब एक साधक गुरु धारण करके किसी एक गुरु परंपरा से जुड़ जाता है तब उस को सम्मान तो सभी का करना है । जीव मात्र का करना है ।
➡ अपमान और आलोचना तो वैष्णव को करनी ही नहीं है लेकिन अपनी निष्ठा । अपना अपना साधन, अपना मंत्र अपना नाम, अपना भजन, अपनी परंपरा के अनुसार करना होता है ।
➡ हम जिस परंपरा में हैं । हमारे गुरुदेव का जो आदेश है वह हम पालन करेंगे । दूसरा जिस परंपरा में है उसकी गुरु परंपरा या गुरुदेव का जो आदेश है वह उसका पालन करेगा ।
➡ यदि यह बात सहजता से मस्तिष्क में बैठ जाए तो कभी भी यह प्रश्न नहीं उठता कि फला व्यक्ति यह बात क्यों बोलता है ।
➡ इस्कॉन वाले सभी हरे कृष्ण बोलते हैं, बृजवासी सभी जय श्री राधे बोलते हैं, कुछ जय निताई बोलते हैं, कुछ जय श्री कृष्ण बोलते हैं । कुछ जय श्री राम बोलते हैं ।
➡ यह सहज ही है । ऐसा होना ही चाहिए । यह उनकी गुरु परंपरा का आदेश है ।
➡ इसी प्रकार तिलक भी अनेको प्रकार के हैं । गुरु परंपरा से जो तिलक प्राप्त हुआ है, उसे वही लगाना है और मुझे वही लगाना है जो मेरी गुरु परंपरा से मुझे प्राप्त है ।
➡ अब एक प्रश्न आता है कि जो गुरु परंपरा से बंधे नहीं है वह निगुरे है । वह या तो तिलक लगाते नहीं है । या उन्हें जो समझ में आ गया जो अच्छा लगा वह लगा लेते हैं ।
➡ और ऐसे ही कुछ लोग दूसरे की उपासना भजन और नाम आदि की आलोचना करते हैं । उनको लगभग ऐसा माना जाए कि उन्होंने इंटर में अभी प्रवेश ही नहीं लिया है कम पढ़े लिखे लोग हैं ।
➡ वही कहते हैं कि अरे यह तो साइंस की बात करता है । यह कॉमरस की बात करता है ।यह आर्ट की बात करता है । अज्ञान के कारण इस प्रकार की बात होती है ।
➡ अतः जो भी जो कुछ कर रहा है, वह यदि अपनी परंपरा से कर रहा है तो ठीक ही है । हम भी अपनी परंपरा के अनुसार अपना साधन भजन नाम करें और यदि हम अभी किसी गुरु परंपरा से नहीं जुड़े हैं तो प्रयास करें कि हम जुड़े ।
➡ यदि नहीं जुड़ना चाहते तो कम से कम हम यह समझे कि जो भी जो कर रहा है, अपने गुरुदेव, गुरु परंपरा के आदेश से कर रहा है ।
➡ गुरु परंपरा का आदेश का पालन करना ही आनुगत्य कहलाता है । आनुगत्य के बिना श्री कृष्ण प्रेम या भजन के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता है ।
➡ समस्त वैष्णव जन को दासाभास का प्रणाम
🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई ॥ 🐚
🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
No comments:
Post a Comment