✔ *अपनी प्रशंसा* ✔
➡ शास्त्र की एक रीति है कि प्रशंसा प्रकट रूप में किसी और की की जाती है, लेकिन वास्तव में होती किसी और की है । जैसे
➡ कंस म् इतना बल था, उतना बल था, इतने हज़ार हाथियों को वश में कर लेता था आदि आदि,
➡ ऐसे परम् बलशाली कंस को श्री कृष्ण ने देखते ही देखते सिंहासन से नीचे पटक दिया और उसको संहार कर दिया ।
➡ यहां कंस की प्रशंसा की गई, कृष्ण के बारे में एक शब्द नहीं बोला, लेकिन अपरोक्ष रूप में ये कृष्ण का ही गुणगान है कि इतने बलशाली कंस को एक झटके में मार दिया तो कृष्ण कितने बलशाली होंगे ।
➡ इसी प्रकार कुछ हम लोग भी करते हैं
आज में बरसाने म् मन्दिर म् दर्शन करके जैसे ही बाहर निकली, एक संत आंख बंद करके भजन कर रहे थे ।
➡ उनके मुख क् तेज, क्या कहने, मेरे साथ 4।5 और भी लोग थे । उन्होंने मुझे इशारा किया, में उनके सामने पहुंची । और भी लोग जाने लगे उन्होंने मना किया, केवल मुझे ही बुलाया ।
➡ दो मिनट वो मुझे देखते रहे और में उनको देखती रही । ओह कितना तेज, भजन का कमाल हो गया । उन्होंने पास बुलाया, मेरे सिर पर हाथ रखा और आशीर्वाद दिया ।
➡ ऐसे सन्त दुर्लभ ही होते हैं, यूंकि कृपा आज भी है मुझ पर, अनेक बार बरसाना गयी, वो फिर कभी दिखे ही नहीं ।
➡ यहां भी सन्त की प्रशंसा के बहाने अपनी प्रशंसा य्या अपने आपको कुछ विशेष कृपा पात्र बताने का प्रयास है । ऐसा हम रोज़ करते हैं ।
➡ दासाभास का वैष्णवजन को प्रणाम
🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई ॥ 🐚
🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
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