✔ *दूसरे के दुख में दुखी* ✔
▶ यह बड़ा अजीब सा टॉपिक है । अधिकतर हम लोग अपने सुख में सुखी और अपने दुख में दुखी रहते हैं
▶ सामने वाले की कुछ भी परवाह नहीं करते हैं अपितु चाहते यह है कि सामने वाला भी हमारे हिसाब से चले
▶ एक बात है कि सामने वाले को सुख देने से हमें दुख हो तब तो फिर भी हमें कुछ अड़चन हो सकती है
▶ लेकिन यदि सामने वाले को सुख देने से हमें कुछ भी दुख नहीं हो रहा तो हमें चाहिए कि हम उसके सुख का ध्यान रखें
▶ उस के सुख से तात्पर्य उस की
भावनाओं का
उसके विचारों का
उसके भोजन का
उसकी जीवन शैली का
उसकी सोच का
आदि आदि
▶ कुल मिलाकर उसके सुख का हम यदि ध्यान रखें तो हम आनंद में रहेंगे
▶ श्री कृष्ण के परिकर बृजवासी गणों में यही एक सर्व दुर्लभ गुण था कि वह श्रीकृष्ण के सुख में सुखी थे इसको हम कहते हैं तत्सुखसुखित्व ।
▶ इसका अभ्यास हमें संसार से ही करना पड़ेगा नहीं तो कृष्ण के सामने आने पर भी हम
▶ अपने सुख ।
अपनी कामनाएं ।
अपनी सुविधा ।
अपनी ईगो की ही बात करते हैं
▶ आप हम विचार करें कि कृष्ण सुख सुखित्व ही सर्वोपरि एवं सर्वश्रेष्ठ भक्ति है
▶ इसी प्रकार अभ्यास करते हुए जीवन में हम यदि दूसरे के सुख का दूसरे के विचार का दूसरे की भावनाओं का आदर करने का धीरे धीरे अभ्यास करें
▶ यद्यपि यह एक बहुत कठिन कार्य है । बहुत मुश्किल भी है लेकिन असंभव नहीं है । एक समय आएगा की पत्नी पति के सुख का ध्यान रखेगी और पति पत्नी के सुख का ध्यान रखेगा
▶ बात वहीं आ गई अब पत्नी अपने सुख का पत्नी पति अपने सुख का ध्यान रखता है और इसमें खींचातानी होती है
▶ तत् सुख सुखित्व में कोई खिंचा तानी नहीं होगी । सम्मान होगा । आदर होगा । आनंद होगा और इस अभ्यास के कारण हम भजन में भी तत् सुख सुखित्व को ला पाएंगे और कृष्ण की चरण सेवा प्राप्त कर पाएंगे
🐚 ॥ जय श्री राधे ॥ 🐚
🐚 ॥ जय निताई ॥ 🐚
🖊 लेखक
दासाभास डा गिरिराज नांगिया
LBW - Lives Born Works at vrindabn
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